B.ED 2023 का संपूर्ण तैयारी करें इस एक ही पोस्ट से।

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 Jharkhand में B.ed की vaccancy आ गया है और यदि आप भी चाहते है की एक ही पोस्ट में सभी सिलेबस का तैयारी हो जाए तो आप सही जगह पर आए है इस पोस्ट में आप झारखंड के b.ed के सिलेबस और study material पाएंगे जिसे पढ़ने के बाद आपको और कोई किताब पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी तो आप इस पोस्ट को अंतिम तक अवश्य पढ़े।

Jharkhand B.ed Vaccancy Detail 2023

Jharkhand B ed Online Start - 10 February 2023

Jharkhand B.ed online last Date - 31 March 2023

Jharkhand B.ed exam Date - 13 May 2023

Jharkhand B.ed Admit Card - 07 may 2023

Jharkhand B.ed Result - Available soon 

Jharkhand B.ed Councelling - Available soon

Jharkhand _bed_2023


Jharkhand B.ed Exam Pattern 2023


A) ENTRANCE TEST SHALL BE HELD IN OMR BASED/OFFLINE MODE.


B) ENTRANCE TEST SHALL BE OF MCQ TYPE FOR TOTAL 100 MARKS WITH 1 MARK AWARDED FOR EACH CORRECT ANSWER AND 0.25 NEGATIVE MARKS FOR EVERY WRONG ANSWER SHALL BE DEDUCTED.


C) SYLLABUS AND SCHEME OF EXAMINATION:


(1) Language Proficiency shall have 30 questions (15 question for Hindi & 15 Questions for English) indicating specific area like comprehension, rearranging sentences, selecting suitable words for the blanks, finding out errors in parts of the sentences, finding out equivalent meaning to the given phrases, finding out suitable words for the incomplete sentences, sequencing, grammar which includes synonyms, idioms, prepositions tenses, articles.


(ii) Teaching Aptitude (40 questions) will cover specific areas like attitude towards education, children and teaching profession; interest in teaching; leadership qualities & group management; emotional & social adjustment; intrapersonal & interpersonal skills; and general awareness of contemporary issues pertaining to school education.


(ii) Reasoning ability (30 questions) indicating specific areas like verbal non- verbal reasoning, missing numbers, number series, letter series, theme finding, jumbling, analogy, odd one out, arranging the statements in a sequential form, statement and conclusion, syllogism, logical problems, establishing relationships and numerical ability

Study Material For Jharkhand b.ed 2023

1) Teaching Aptitude ( शिक्षण अभिरूची)

A) शिक्षण अभिक्षमता 

B) बाल शिक्षण व्यवसाय 

C) शिक्षण अभिरुचि 

D) नेतृत्व गुण

E) समूह प्रबंधन

F) शिक्षण में भावनात्मक तथा सामाजिक समायोजन 

G) स्कूली शिक्षा से सबंधित current affairs 

A) शिक्षण अभिक्षमता 

(इस पोस्ट में सबसे पहले subjective और अंत में objective प्रश्न -उतर दिया गया है।)

किसी राष्ट्र की समृद्धि एवं प्रगति मानव संसाधनों के विकास पर निर्भर करती है, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुशल एवं सक्षम शिक्षकों की आवश्यकता सदैव बनी रहती है।


अतः किसी शिक्षण संस्थान में सफल शिक्षक बनने के लिए योग्यता, बुद्धिमत्ता, शिक्षण कौशल, अदिश मनोदृष्टि आदि वांछित गुण होने चाहिए। इस बात को ध्यान में रखते हुए विशेष रूप से शिक्षक को शिक्षण अवधारणाओं, शिक्षण उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, शिक्षण व्यूह रचनाओं एवं शिक्षण अधिगम सामग्री के उचित प्रयोग का ज्ञान होना चाहिए जिससे वह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सुचारु रूप से क्रियान्वित कर सके तथा छात्रों के लिए निर्धारित अधिगम उद्देश्यों से प्राप्त किया जा सके।


शिक्षण अभिक्षमता


शिक्षण कार्य के लिए व्यक्ति में विशेष प्रकार की योग्यता, क्षमता, कार्यकुशलता, प्रवृत्ति, अभिवृत्ति और रुचि का होना आवश्यक है। शिक्षण अभिवृत्ति शिक्षक का वह व्यवहार है, जो उसके तीनों मनोवैज्ञानिक पक्षों-ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा मनोयोगात्मक से प्रभावित होकर सामने आता है। शिक्षण अभिवृत्ति शिक्षण की पूरी प्रक्रिया के पक्ष तथा विपक्ष दोनों को प्रवृत्त कर सकती है।


शाब्दिक एवं क्रियात्मक व्यवहारों से शिक्षण अभिवृत्ति का पता लगाया जा सकता है; किन्तु यदि कोई व्यक्ति अपनी वास्तविक अभिवृत्ति को छिपाना चाहे तो वह बड़ी आसानी से ऐसा कर सकता है। इसका पता लगाना पूछताछ विधि से सम्भव नहीं हो पाता। प्रक्षेपक विधियों द्वारा ही किसी की सही अभिवृत्ति का पता लगाया जा सकता है।


अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि शिक्षण अभिक्षमता शिक्षण कार्य में रुचि, रुझान, शिक्षण सिद्धान्तों एवं विधियों के उचित प्रयोग तथा शिक्षण कार्यों का उपयुक्त दिशा में निरूपित करने की योग्यता है।


शिक्षण की अवधारणाएँ


शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें बहुत से कारक शामिल होते हैं और सीखने वाला इस प्रक्रिया के माध्यम से ज्ञान तथा कौशल को अर्जित कर लक्ष्यों की प्राप्ति करता है। इस प्रकार शिक्षण मानवीय मूल्यों को विकसित करता है।


शिक्षण का सामान्य अर्थ शिक्षा प्रदान करने की क्रिया व शाब्दिक अर्थ सिखाना या सीख देना' है। यह एक सामाजिक प्रक्रिया है, जो शिक्षण के मानवीय मूल्यों को विकसित करने पर बल देती है। विस्तृत रूप से शिक्षा का तात्पर्य औपचारिक या अनौपचारिक रूप से आजीवन सीखते- सिखाते रहना है, किन्त संकुचित रूप में शिक्षा का अर्थ औपचारिक रूप से किसी शिक्षण संस्था में शिक्षा ग्रहण करने से है। वर्तमान शिक्षा परिवेश में शिक्षण का उद्देश्य विद्यार्थियों में अधिगम करके सीखने की गतिशीलता लाना है, न केवल रहना और बलपूर्वक ज्ञान को मस्तिष्क में बिठाना।


शिक्षण के द्वारा ही शिक्षार्थी नवीन ज्ञान का अर्जन करता है, इस सन्दर्भ में विद्वानों ने निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं। "दूसरों को सिखाने, दिशा-निर्देश देने एवं उन्हें निर्देशित करने की प्रक्रिया ही शिक्षण है।" (रियान्स)

"शिक्षण एक पारस्परिक प्रभाव है, जिसका उद्देश्य दूसरे व्यक्तियों के व्यवहारों में अपेक्षित परिवर्तन लाना हैं। " (गेज) 

 "अधिगम को अभिप्रेरित करने वाली क्रिया शिक्षण है।" (बी.ओ. स्मिथ)

शिक्षण की विशेषताएँ

शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को ज्ञान, कौशल तथा अभिरुचियों को सिखाने या प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है। इस आधार पर शिक्षण की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं शिक्षण एक व्यावसायिक क्रिया है।


• शिक्षण एक ऐसी पारस्परिक अन्तःक्रिया है, जिसका परिचालन विद्यार्थी के मागदर्शन और प्रगति के लिए होता है।


शिक्षण विविध रूपों में सम्पन्न हो सकता है; जैसे- औपचारिक, अनौपचारिक, निदेशात्मक एवं अनुदेशात्मक प्रशिक्षण आदि । शिक्षण का अवलोकन एवं विश्लेषण वैज्ञानिक ढंग से होता है।


शिक्षण में सम्प्रेषण कौशल का आधिपत्य होता है। शिक्षण शिक्षक के परिश्रम का परिणाम है।


शिक्षण में अपेक्षित सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।


शिक्षण के द्वारा बौद्धिक चरित्र का निर्माण होता है। इसके द्वारा आपसी सहयोग व भ्रातृत्व की भावना का पूर्ण विकास होता है।


शिक्षण की आधारभूत आवश्यकताएँ / मूल अपेक्षाएँ


शिक्षण प्रक्रिया में मूल रूप से शिक्षक (स्वतन्त्र चर ), विद्यार्थी (आस्तिक/ परतन्त्र) और पाठ्यक्रम (हस्तक्षेप चर) की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। इसके अभाव में उत्तम शिक्षण प्रणाली का विकास असम्भव होता है।


शिक्षण की आधारभूत आवश्यकता छात्रों के व्यवहारों में परिवर्तन के लिए होती है।

शिक्षण प्रक्रिया का आधारभूत केन्द्र बिन्दु अधिगम है।

शिक्षण की आवश्यकता छात्रों को वांछित ज्ञान और कौशल सीखने एवं अधिग्रहण के लिए होती है।

शिक्षण के लिए आवश्यक तत्त्व शिक्षक होता है, जो ज्ञान परिमार्जन करता है।


शिक्षण ज्ञान, बोध तथा संकल्प शक्ति द्वारा ही सम्भव है। शिक्षण प्रेरक और प्रतिक्रिया के बीच में नवीन सम्बन्ध स्थापित करती है ।


शिक्षण कौशल, शिक्षण वातावरण, संस्थागत अवसंरचना आदि शामिल होते हैं, जो मूलभूत आवश्यकता के ही भाग होते हैं।


शिक्षण के उद्देश्य


शिक्षण का मुख्य उद्देश्य शिक्षार्थियों में अधिगम उत्पन्न करना है। ब्लूम ने शिक्षण के उद्देश्यों को तीन भागों (1956) में बांटा है, जिन्हें अंग्रेजी में 3H भी कहा जाता है। ये 3H हैं-Head (ज्ञानात्मक क्षेत्र, Heart (भावात्मक क्षेत्र) Hand (मनोसंचालित या क्रियात्मक क्षेत्र) उनका विवरण निम्न प्रकार है


ज्ञानात्मक ज्ञान क्षेत्र


ज्ञानात्मक ज्ञान क्षेत्र बौद्धिक क्षमता के विकास से सन्दर्भित है, इसे छः मुख्य स्तर पर विभाजित किया गया है।


1. ज्ञान (Knowledge) ज्ञान का सम्बन्ध वस्तु या उसकी जानकारी को स्मरण रखने से है।

 2. बोध (Comprehension) यह स्तर बोध अर्थ समझने की क्षमता से सम्बन्धित है। 

3. उपयोग (Application) यह स्तर अमूर्त ज्ञान (Abstract Knowledge) को मूर्त या व्यावहारिक रूप में लाने के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है।


4. विश्लेषण (Analysis) विश्लेषण द्वारा प्राप्त सूचना घटकों को विभाजित किया जाता है, जिससे उसका सही अर्थ निकल सके।

 5. संश्लेषण (Synthesis) यह मूलतः घटकों को समावेशित करने का स्तर है। इस स्तर को विश्लेषण स्तर का विलोम माना जाता है।


6. मूल्यांकन (Evaluation) मूल्यांकन सतत् प्रक्रिया के रूप में होता है। यह विशेष प्रयोजनों में प्रयुक्त तरीके और सामग्री के बारे में किया गया निर्णय है।


भावात्मक ज्ञान क्षेत्र


इस ज्ञान क्षेत्र में मनोभाव या मनेदृष्टि प्रेरणा, शिक्षण को सहभागिता, अनुशासन एवं इनके जैसे ही अन्य मूल्यों को समावेशित किया जाता है। इसके भी पाँच मुख्य स्तर है


1. आकलन (Valuing) जो हम सीखते हैं और उसकी महत्ता


2. आग्रहण (Receiving) सुनने की इच्छा


3. प्रतिक्रिया (Responding) सहभागिता की इच्छा


4. संयोजित करना (Organising) मिलान करना

 5. निरूपण (Characterisation) अन्तर करना, अभिव्यक्ति ।


मनोसंचालित ज्ञान क्षेत्र


इस ज्ञान क्षेत्र को मनोगत्यात्मक, मनोप्रेरक या क्रियात्मक ज्ञान क्षेत्र भी कहा जाता है। यह तकनीकी कौशल के अधिग्रहण (Acquisition) से सम्बन्धित है। इस ज्ञान क्षेत्र के भी पाँच स्तर हैं। 

1. हस्तकौशल या कार्य साधन (Manipulation) इस क्षेत्र में शिक्षार्थी मशीनरी, उपकरण इत्यादि का उपयोग करने का प्रयत्न करता है,जिससे उसका आत्मविश्वास बढ़ता रहे।

2. प्रतिरूपता (Imitation) इस स्तर पर शिक्षार्थी के कौशल को उसी रूप में अपनाने का प्रयास किया जाता है। 

3. स्पष्ट अभिव्यक्ति (Articulation) यह स्तर सतत् अभ्यास पर निर्भर


4. परिशुद्धता (Precision किसी कार्य को बार-बार करते रहने से उसमें सुधार एवं शुद्धता आती है।


6. प्रकृतिकरण (Naturalisation) इस स्तर पर शिक्षार्थी शिक्षण के अनुरूप कौशल को आत्मसात् करना, संशोधन करना, नई तकनीकों को नियत करना इत्यादि को आत्मसात् करता है।


शिक्षण सिद्धान्त


शिक्षण प्रक्रिया के सिद्धान्त के सन्दर्भ में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों द्वारा कुछ सिद्धान्त दिए गए हैं, जो इस प्रकार हैं


1. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त शिक्षकों को (Principle of definite aims) अध्यापन का कार्य करने से पूर्व पढ़ाने का उद्देश्य निर्धारित करना चाहिए। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रत्येक विषय-व -वस्तु का अपना एक महत्त्व होता है, जो शिक्षक एवं छात्र दोनों को एक लक्ष्य प्रदान करता है।

ये लक्ष्य दो प्रकार के होते हैं प्रथम, सामान्य उददेश्य तथा द्वितीय, विशिष्ट उद्देश्य | सामान्य उद्देश्य विषय वस्तु से सम्बन्धित अध्याय से होता है, जबकि विशिष्ट उद्देश्य का सम्बन्ध किसी अध्याय (topic) से होता है। उदाहरणस्वरूप यदि कोई सामाजिक विज्ञान का अध्यापक लोकतन्त्र (Demoenry) नामक अध्याय अपने वर्ग में पढ़ाने की योजना बनाता है तो यह उस विषय से सम्बन्धित सामान्य उद्देश्य को दर्शाता है, यदि वह नागरिकशास्त्र (Civics) पढ़ाने की बात करता है, तो यह विशिष्ट उद्देश्य को दर्शाता है, जिनके अन्तर्गत लोकतन्त्र भी आता है। ,


2. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Co-relation) यह सिद्धान परस्पर सम्बन्ध के आधार पर शिक्षण प्रणाली को मजबूत बनाने पर जोर डालता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि यह सिद्धान्त आगमनात्मक (Inductive) से निगमनात्मक (Doductive) शिक्षण नियमों का अनुसरण (Pillow) करता है। यदि कोई अध्यापक अपने वर्ग संज्ञ (Noun) के विषय में पढ़ाता है, तो उस अध्याय को वर्तमान उपस्थित उदाहरणों से जोड़कर पढ़ाना चाहिए, जैसे- कुर्सी, टेबल, कलम एवं आम इत्यादि। इस प्रकार, यह विधि केवल शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली ही नहीं बनाती बल्कि विद्यार्थियों को सम्बन्धित अध्याय से जोड़ी भी है।


3. अभिप्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अभिप्रेरणा असाधारण भूमिका निभाती है। यह अभिप्रेरणा आन्तरिक एवं बाह्य दो रूपों में होती है। आन्तरिक अभिप्रेरणा व्यक्तिगत रूप से स्वयं द्वारा संचालित होती है तथा यह किसी कार्य को करने के लिए व्यक्ति को स्वयं अभिप्रेरित करती है। दूसरे शब्दों में बाह्य अभिप्रेरणा शिक्षकों के द्वारा विद्यार्थियों को उपलब्ध करायी जाती है। उपरोक्त दोनों प्रकार की अभिप्रेरणा न केवल विद्यार्थ के लिए, बल्कि शिक्षकों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि दोनों शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के स्तम्भ (pillar) है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में शिक्षक एवं छात्र दोनों अभिप्रेरित नहीं हो, तो शिक्षण अधिगम प्रक्रिय की दर में ह्रास (Decrease) हो सकता है।


4. पुनरीक्षण एवं अभ्यास का सिद्धान्त (Principle of Revision / Practice) यह प्रसिद्ध लोकोक्ति (proverb) है कि अभ्यास मनुष्य पूर्ण (perfect) बनाता है। यह लोकोक्ति शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया  में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षण के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि शिक्षक विद्यार्थियों को विषय-वस्तु से सम्बन्धित अभ्यास एवं गृह कार्य (home work or exercise) प्रदान पहलू provide करता है, जो छात्रों की मूल्यांकन की एक विधि भी है। यह मूल्यांकन प्रक्रिया छात्रों को रचनात्मक मूल्यांकन (formative assessment) में मदद करती है।


6. पुनर्बलन का सिद्धान्त (Principle of Reinforcement) यह सिद्धान्त प्रसिद्ध व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक बी एफ स्किनर (B.F. Skinner द्वारा दिया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार पुनर्बलन दो प्रकार के होते है- प्रथम, सकारात्मक पुनर्बलन जो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की दर को बढ़ाता है तथा द्वितीय नकारात्मक पुनर्बलन जो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की दर को घटाता


सकारात्मक पुनर्बलन पुरस्कार (Award) से सम्बन्धित होता है, जो , तगत रूप से कठोर परिश्रम (Hard work) पर आधारित होता है। कभी-कभी नकारात्मक पुनर्बलन भी सकारात्मक पुनर्बलन का कार्य करता है, जब व्यक्ति को दण्डित (pusnishment) किया जाता ह तथा इसके माध्यम से वह स्वयं में सुधार लाता हैं।


6. उद्दीपन का सिद्धान्त (Principle of stimulation) उत्तेजना पद Term) किसी कार्य को व्यक्तिगत रूप से करने की अवस्था ( arousal) को दर्शाती है। इस सिद्धान्त के अनुसार, यदि कोई विद्यार्थी व्यक्तिगत रूप से कार्य के प्रति उत्तेजित रहता है, तो वह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दौरान अधिक सक्रिय एवं सृजनशील होगा। किसी व्यक्ति को उत्तेजित करने के लिए विभिन्न कारक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो वातावरण, व्यक्तिगत अभिरुचि (personal interest), शिक्षण तकनीक तथा शिक्षण अधिगम सामग्री के रूप में होता है।


शिक्षण के महत्त्वपूर्ण सूत्र


शिक्षक अपने शिक्षण कार्य को प्रभावशाली एवं कुशल बनाने के लिए शिक्षण के विभिन्न सूत्रों का प्रयोग करते हैं जो निम्न प्रकार हैं


1. सरल से जटिल (Simple to complex) शिक्षक को शिक्षण के दौरान विद्यार्थियों को पहले सरल (Easy) बाते बतानी चाहिए, जो एक क्रम में हों अर्थात् पहले गिनती (Counting), पहाड़ा (Table) तब जोड़, घटाव....... ..इत्यादि। इसके बाद जटिल बातें बताना चहिए।


2. ज्ञात से अज्ञात की ओर (Know to Unknow) शिक्षक को शिक्षण के समय सबसे पहले विद्यार्थियों को पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु से सम्बन्धित जानकारी देनी चाहिए। तत्पश्चात् विषय-वस्तु को आधार बनाते हुए नवीन जानकारी देनी चाहिए।


विश्लेषणा से संश्लेषण (Analysis to Synthesis) शिक्षक स्वयं पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु के तथ्यों का विश्लेषण कर व्यापक जानकारी एकत्र करें तथा तत्पश्चात् उन विश्लेषित विषय वस्तुओं को संयोजित कर संश्लेषित करना चाहिए, ताकि अध्यापन के दौरान उन्हें सुविधा हो ।


4. आगमनात्मक से निगमनात्मक (Inductive to Deductive) इस विधि के अन्तर्गत शिक्षकों को विषय-वस्तु से सम्बन्धित नियम से पहले उदाहरण देना चाहिए ताकि बच्चे आसानी से विषय को समझ सकें।


5. निगमनात्मक से आगमनात्मक (Deductive to Inductive ) इसके अनुसार, शिक्षकों को विषय-वस्तु से सम्बन्धित नियमों को पहले , बताना चाहिए, तत्पश्चात् उदाहरण (Example) को ताकि विद्यार्थी नियम एवं उदाहरणों के मध्य समन्वय बना सकें।

6. यथार्थपूर्ण से भावनात्मक (Concert to Abstract) यह अवधारणा इस बात पर बल देती है कि शिक्षण के समय शिक्षक को भौतिक सामग्रियों के आधार पर बालकों को पढ़ाना चाहिए; जैसे— पेड़-पौधे, जानवर तथा पानी इत्यादि। इसके पूर्व वैसे सामग्रियों (Materials) के विषय में शिक्षण देना चाहिए। जिसे हम प्रत्यक्ष रूप से नहीं समझ सकते, परन्तु महसूस (Feel) करते है जैस हवा प्रकाश तरंग तथा तापमान इत्यादि।


शिक्षण की रणनीतियाँ


शिक्षण प्रक्रिया के सिद्धान्तों का अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि छात्रों को किसी विषय वस्तु के विषय में कैसे सिखाया जाए? शिक्षण प्रक्रिया में छात्रों की उपस्थिति होना सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है। अतः इन्हीं बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को समझा जा सकता है, जो छात्रों एवं शिक्षकों दोनों के लिए उपयोगी होता है।


शिक्षण के क्षेत्र में 6 Es (एस) एवं एक S (एस) मॉडल को अपनाया जाता है जो बताता है कि एक शिक्षक अपने छात्रों को कक्षा में किस प्रकार से शिक्षण प्रक्रिया को उपयोगी बना सकते हैं, साथ ही छात्रों को भी सीखने की प्रवृत्ति के विषय में उपयोगी होता है, ये 6 Es एवं एक 8 (एस) हैं— संलग्न होना (Engage). अन्वेषण (Explore ), व्याख्या (Explain ), विस्तृत (Elaborate), मूल्यांकन (Evaluate), विस्तार (Extend) एवं मानक (Standards) इत्यादि । विस्तृत एवं मानक हॉल ही में जोड़े गए हैं। इन मॉडलों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं। 

1. संलग्न (Engage) इस प्रक्रम में छात्रों को सीखने के क्रम में उत्सुक बने रहना अनिवार्य होता है, शिक्षक को भी चाहिए कि वे छात्रों में किसी पाठ आदि के प्रति उत्सुकता उत्पन्न करते रहें। सारांशतः यह कहा जा सकता है कि उत्सुकता उद्दीपन की एक प्रक्रिया है, जो छात्रों के ज्ञान को बढ़ाती है तथा उन्हें विषय-वस्तु के साथ संलग्न करती है।


2. अन्वेषण की क्षमता (Explore/Freedom to Investigation) अन्वेषण का अर्थ छात्रों द्वारा किसी विषय वस्तु की गहराई का अवलोकन करना होता है। यह छात्रों में जागरूकता की भावना को उत्पन्न करता है, इस प्रक्रम में शिक्षक भी छात्रों को किसी विषय वस्तु की गम्भीरता को बताते हैं, जो अन्ततः छात्रों द्वारा उस उपयुक्त विषय के बारे में अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त कर ली जाती है।


3. समझना (Explain / Analysis of Explore Stage) शिक्षण प्रक्रम की यह वैसी अवस्था है, जिसके अन्तर्गत यह पता लगाया जाता है कि छात्रों ने उक्त विषय के बारे में कितनी अधिक जानकारियाँ प्राप्त की हैं। इस प्रक्रिया में किसी विषय वस्तु की तथ्यात्मक तथा विश्लेषणात्मक आयामों की छात्रों से जानकारी ली जाती है।


4. ज्ञान का विस्तृत उपयोग (Elaborate Application of Knowledge) ज्ञान के अनुप्रयोग का अर्थ अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास करना होता है। इसके अन्तर्गत प्राप्त की गई जानकारी को वास्तविक जीवन में अनुप्रयोग करना होता है अर्थात् छात्र अपने ज्ञान की तथ्यात्मक, विश्लेषणात्मक एवं अन्य बिन्दुओं का प्रयोग करते हैं।


5. मूल्यांकन (Evaluation) मूल्यांकन के प्रक्रम में शिक्षक एवं छात्र दोनों को शामिल किया जाता है, यह एक सतत प्रक्रिया होती है, जिसमें समय-समय पर छात्रों का मूल्यांकन होता है यह मूल्यांकन मुख्यतः दो प्रकार का होता है। प्रथम रचनात्मक मूल्यांकन एवं द्वितीय योगात्मक मूल्यांकन। 

6. विस्तार (Extend) शिक्षण अधिगम प्रक्रम में विस्तार का अर्थ अपने दिए गए पाठ्यक्रम के अलावा ज्ञान का प्राप्ति करना होता है। इस प्रक्रम में शिक्षक छात्रों को नए-नए तथ्यों से अवगत कराते रहते हैं। 

7. मानक (Standards) शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा निर्धारित मानदण्डो (Norms) को इस प्रक्रम के अन्तर्गत रखा जाता है। शैक्षणिक क्षेत्र के प्रमुख प्राधिकरण है राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद्-एन सी ई आर टी (NCERT) National Council of Education Research and Training. एन सी टी ई (NCTE) राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद् (National Council For Teacher Education), एन.पी.ई (NPE) (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) (National Policy of Education), सी.सी.ई. मैन्युअल (CCE, Manual) सतत और व्यापक मूल्यांकन निर्देश (Continuous and Comprehensive Evaluation), एवं राज्य बोर्ड (State Board) इत्यादि इन मानदण्डों का शिक्षक एवं छात्र दोनों के द्वारा अनुसरण किया जाता है, जो शैक्षणिक स्तर को गति प्रदान करते हैं।


शिक्षण विधियाँ एवं शिक्षण व्यूह रचनाएँ


• शिक्षण व्यूह रचना शिक्षण विधि से भिन्न होती है शिक्षण व्यूह रचना का अर्थ है शिक्षण की रणनीति का निर्माण एवं उसका प्रयोग, जबकि शिक्षण विधि का अर्थ होता है- शिक्षण का तरीका। यद्यपि कुछ शिक्षण व्यूह रचनाओं को आव्यूहों की संज्ञा भी दी जा सकती है, परन्तु जब उन्हें आव्यूह कहा जाता है, तब उनका उद्देश्य बदल जाता है। 

शिक्षण विधियों में कार्य तथा प्रस्तुतीकरण को महत्त्व दिया जाता है, जबकि शिक्षण आव्यूहों में उद्देश्यों को महत्त्व दिया जाता है। स्टोन्स एवं मौरिस के अनुसार, "शिक्षण व्यूह रचना पाठ की एक सामान्य योजना है, जिसमें उसकी संरचना, शैक्षणिक लक्ष्यों के रूप में छात्रों का अपेक्षित व्यवहार और व्यूह रचना को प्रयोग करने के लिए आवश्यक नियोजित युक्तियों की रूपरेखा शामिल है।"


शिक्षण व्यूह रचनाओं को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- प्रभुत्ववादी व्यूह रचनाएँ तथा प्रजातान्त्रिक व्यूह रचनाएँ। • व्याख्यान, प्रदर्शन, ट्यूटोरियल समूह एवं अभिक्रमित अनुदेशन प्रभुत्ववादी


व्यूह रचना के प्रकार हैं। प्रजातान्त्रिक व्यूह रचना के अन्तर्गत कई व्यूहरचनाएँ आती हैं।


जिनमें से कुछ प्रमुख व्यूह रचनाएँ इस प्रकार हैं- प्रश्नोत्तर व्यूह रचना, खोज अथवा अन्वेषण व्यूह रचना, प्रोजेक्ट व्यूह रचना, सामूहिक वाद-विवाद व्यूह रचना, गृहकार्य व्यूह रचना, कम्प्यूटर द्वारा प्रशिक्षण इत्यादि ।


शिक्षण विधियों के प्रकार


शिक्षक, शिक्षण विधियों के उपयोग से छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाता है और छात्र शिक्षकों की सहायता से सीखने के अनुभव प्राप्त करते हैं, परन्तु अनेक शिक्षण विधियों को छात्रों की समस्त क्षमताओं के विकास के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। शिक्षक एवं छात्रों की भूमिका के आधार पर शिक्षण विधियों को


निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

 1. शिक्षक नियन्त्रित अनुदेशन (Teacher Controlled Instruction) यह शिक्षण की सर्वाधिक प्राचीन विधि है। इसमें शिक्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है।


शिक्षक अधिक क्रियाशील रहता है। इस प्रकार शिक्षण विधियों को निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है; व्याख्यान विधि, पाठ-प्रदर्शन विधि तथा अनुवर्ग शिक्षण विधि ।

2.छात्र  नियन्त्रित अनुदेशन (Student Controlled Instruction) 10 शताब्दी में मनोविज्ञान ने शिक्षा एवं शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावित क और छात्र के विकास को प्राथमिकता दी जाने लगी।


प्रकृतिवादी दर्शन ने भी छात्र की प्रकृति के अनुसार शिक्षा की व्यवस्थ को महत्त्व दिया। इस प्रकार की शिक्षा छात्र केन्द्रित होने लगी और छात्र का स्थान मुख्य एवं शिक्षक का स्थान गौण होता गया। छात्र- नियन्त्रित अनुदेशन में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि का विकास स्वाभाविक रूप से हो, जिससे उसकी क्षमताओं योग्यताओं का सम्पूर्ण विकास हो सके। छात्र नियन्त्रित अनुदेशन के उदाहरण कैलर योजना अधिक्रमित अनुदेशन कम्प्यूटर सहायक अनुदेशन स्वामित्व अधिगम, गृहकार्य विधि, खेल-विधि, कहानी इत्यादि छात्र नियन्त्रित अनुदेशन के उदाहरण हैं।


3. समूह-नियन्त्रित अनुदेशन (Group Controlled Instruction) समूह नियन्त्रित अनुदेशन में छात्रों को विभिन्न समूहों में बांटकर शिक्षा द जाती हैं। यह एक प्रकार का छात्र नियन्त्रित अनुदेशन ही है, अन्तर केवल इतना है कि इसमें शिक्षक छात्रों की पूरी निगरानी करते हैं। अनुकरणीय विधि, शैक्षिक यात्रा विधि, योजना विधि, ऐतिहासिक खोज विधि इत्यादि समूह नियन्त्रित विधि के उदाहरण हैं।


4. शिक्षक व छात्र नियन्त्रित अनुदेशन (Teacher and Student Controlled Instruction) शिक्षक व छात्र नियन्त्रित अनुदेशन में शिक्षक एवं छात्र दोनों की भूमिका होती है। प्रश्नोत्तर विधि, अन्वेषण विधि सामूहिक वाद-विवाद विधि, संवेदनशील प्रशिक्षण विधि इत्यादि शिक्षक व छात्र नियन्त्रित अनुदेशन के उदाहरण हैं।


शिक्षण विधि की विभिन्न तकनीक


1. किण्डर गार्टन प्रणाली किण्डर गार्टन प्रणाली (Kinder Garten Process) के जन्मदाता जर्मन मनोवैज्ञानिक फ्रोबेल हैं। इसके अनुसार, विद्यालय बालकों का बगीचा है, जिससे बालक स्वच्छन्दता के परिवेश में खेल सकें।


इस प्रणाली के तहत बच्चों को खेल के माध्यम से सिखाया जाता है। इस प्रणाली के कई लाभ है; जैसे शिशु शिक्षा पर बल खेल द्वारा शिक्षा, बालकों की स्वतन्त्रता, सामाजिक भावना का विकसित होना, प्राकृतिक वातावरण के साथ अध्ययन इत्यादि ।


2. प्रोजेक्ट या परियोजना विधि प्रोजेक्ट शिक्षा प्रणाली का जनक किल पैट्रिक को माना जाता है। इसके


अन्तर्गत विभिन्न विधियों का प्रयोग होता है अध्यापक वाद-विवाद के माध्यम से बालकों के समक्ष समस्या उत्पन्न करता है तथा उसके समाधान के लिए कहा जाता है कि वह प्रोजेक्ट के माध्यम से समस्या का समाधान करें।


प्रोजेक्ट बालकों की इच्छा के अनुरूप दिया जाता है। प्रोजेक्ट की समाप्ति पर उसका मूल्यांकन होता है।


3. डाल्टन विधि


यह शिक्षा पद्धति 1920 ई. में कुमारी हेलेन पार्क हर्स्ट द्वारा विकसित की गई। अमेरिका के डाल्टन नगर में वह 30 बच्चों की प्रमुख थी, जो आयु तथा योग्यता में एक-दूसरे से अलग थे। इन बच्चों की शिक्षा के लिए जो विधि अपनाई गई उसे डाल्टन विधि (Dalton Method) कहा गया। इस विधि की विशेषताएँ निम्न हैं-


शिक्षा का स्वरूप व्यक्तिगत भिन्नता पर आधारित था।

 स्वयं करके एवं अनुभव के माध्यम से सीखने पर बल । 

• एक निश्चित समय में निश्चित कार्य करने पर बल • बालकों में उत्तरदायित्व तथा आत्म निर्भर बनने की भावना का विकास करना 


अध्यापक एवं छात्रों के बीच गहरा सम्बन्ध विकसित करने पर बला


4. पेस्तालॉजी विधि इस विधि के प्रणेता जॉन हेनरी पेस्तालॉजी थे। इन्होंने शिक्षा को मनोवैज्ञानिक रूप दिया तथा इनका बल शिक्षा शास्त्र (pedagogy) पर था। • अध्यापक को यह पता होना चाहिए कि बच्चे को कैसे पढ़ाना है, बच्चे किस आयु में सीखते हैं तथा बच्चे किस विधि से अधिक सीखते हैं?" शिक्षण विधि की अन्य विधियों में व्याख्यान विधि, परिचर्चा विधि, निरूपण विधि तथा यूरिस्टिक विधि (अन्वेषण विधि) आती हैं।'


शिक्षण अधिगम प्रक्रिया


• अध्यापन का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी के व्यवहार को उचित दिशा में प्रभावित करना अर्थात् उसके अधिगम को उचित दिशा में प्रभावी बनाना होता है।


अधिगम को प्रभावी बनाने तथा व्यवहार को परिवर्तन करने की उचित दिशा क्या हो, इसका निर्णय विद्यालय और अध्यापक मिलकर शैक्षिक उददेश्य निर्धारित करते समय करते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि अध्यापक को शिक्षा के लक्ष्य और उसके उद्देश्यों के बारे में पता हो।


• साथ ही अध्यापक को इस योग्य होना चाहिए कि वह विद्यार्थी के सीखने के लिए प्रभावशाली साधनों का निर्माण कर सके और अन्त में वह यह निर्धारित कर सके कि इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किस सीमा तक जाना है? शैक्षिक प्रक्रिया के तीन मुख्य बिन्दु हैं— उद्देश्य, अधिगम अनुभव क्रियाएँ एवं विद्यार्थी का मूल्य निर्धारण।


शैक्षिक प्रक्रिया को सामान्य रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है


उपरोक्त चित्रण गतिमय है। इसमें तीनों मुख्य अंगों की पारस्परिक अन्तः क्रिया दिशा-तीरों के द्वारा बताई गई है। उद्देश्य यह निर्धारित करते हैं कि विद्यार्थी को कौन-से वांछित व्यवहार को प्राप्त करने की दिशा में चलना चाहिए? अधिगम अनुभव वे क्रियाएँ और अनुभव है जो वांछित व्यवहार प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी को करने चाहिए । • अध्यापन अनुभव प्रदान करने में अध्यापक का योगदान महत्त्पूर्ण होता है।


अध्यापन अनुभवों में विद्यार्थी और विषय सामग्री के बीच अन्तःसम्बन्ध स्थापित करना निहित है।


• अध्यापक विद्यार्थियों को अधिगम अनुभव प्रदान करने के लिए विभिन्न तरीके अपनाता है। इन अनुभवों से विद्यार्थियों में व्यवहारगत परिवर्तन होते। हैं। अतः अधिगम में विद्यार्थियों के व्यवहार में आया परिवर्तन शामिल है। विद्यार्थियों में उल्लेखनीय अधिगम होने के लिए यह आवश्यक है कि | शिक्षण प्रभावी हो। विद्यार्थियों में विषय सामग्री के अधिक आदान-प्रदान के लिए अध्यापक को उचित विधियों और माध्यम को अपनाना चाहिए। इस प्रकार प्रभावशाली अध्यापन वही है, जो उचित और सफल अधिगम अनुभवों की ओर ले जाए।


• अध्यापन के अतिरिक्त शैक्षिक अनुभव प्राप्त करने के लिए और भी साधन अपनाए जा सकते हैं, जैसे लाइब्रेरी, प्रयोगशाला, रेडियो, फिल्में, विज्ञान क्लब और भ्रमण जैसे या अन्य वास्तविक जीवन से सम्बन्धित सीखने की परिस्थितियाँ।


• विद्यार्थी जाँच का प्रयोजन यह जानना है कि उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त कर लिया गया है? शैक्षिक प्रक्रिया यह बताती है कि प्रत्येक शिक्षण बिन्दु दूसरे के साथ कैसे जुड़ा है?


विद्यार्थी की जांच से निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर का पता लगाने में सहायता मिलती है।


(i) उद्देश्यों में संशोधन करना चाहिए या उन्हें हटा देना चाहिए।


(ii) क्या ये उद्देश्य किसी वर्ग विशेष के लिए उपयुक्त हैं?


(iii) क्या उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक सन्दर्भ प्राप्त है? सामान्यतः शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में विद्यार्थियों की जाँच हेतु मूल्यांकन प्रवृद्धि का प्रयोग किया है।


मूल्यांकन


मूल्यांकन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अधिगम परिस्थितियों तथा सोखने के अनुभवों के लिए प्रयुक्त की जाने वाली समस्त विधियों और प्रविधियो की उपयोगिता की जांच की जाती है। टॉरगर्सन एवं एडम्स के अनुसार, किसी प्रक्रिया अथवा वस्तु के महत्त्व को निर्धारित करना ही मूल्यांकन है।


मोफात के अनुसार, मूल्यांकन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है तथा यह छात्रों को औपचारिक शैक्षिक अनुभव प्रदान करता है। मूल्यांकन शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का एक ऐसा सोपान है, जिसमें शिक्षक यह सुनिश्चित करता है कि उसके द्वारा की गई शिक्षण व्यवस्था तथा शिक्षण को आगे बढ़ाने की क्रियाएँ कितनी सफल रही हैं।


• यह सफलता शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति प्रत्युत्तर का कार्य करती है। इस तरह, मापन के आधार पर शिक्षकों एवं शिक्षार्थियों में आवश्यक सुधार लाने के उद्देश्य से मूल्यांकन की प्रक्रिया अपनाई जाती है। इसमें यह देखा जाता है कि पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है या नहीं यदि नहीं हुई है तो कितनी सीमा तक। यह एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसका शैक्षिक उद्देश्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध है ।


मूल्यांकन शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों के लिए पुनर्बलन (Reinforcemen) का कार्य करता है। शिक्षा जगत् में मूल्यांकन को प्रासंगिक माना जाता है. इसके द्वारा असफलताओं का निर्णय तथा कठिनाइयों आदि की जानकारी प्राप्त की जाती है।


मूल्यांकन के प्रकार मूल्यांकन मुख्यतया तीन प्रकार के होते हैं


1. रचनात्मक मूल्यांकन


• रचनात्मक मूल्यांकन फीडबैक मुहैया कराता है, जो विद्यार्थियों को (शिक्षा प्राप्ति की) त्रुटियों को समझने और उन्हें दूर करने में विशेष सहायता देता है। 

सैडलर के अनुसार — 'रचनात्मक मूल्यांकन में फीडबैक और स्व-मॉनिटरन दोनों तत्त्व शामिल होते हैं।'


ब्लैक और विलियम के अनुसार 'रचनात्मक मूल्यांकन प्रायः इससे अधिक कुछ नहीं होता कि मूल्यांकन बारम्बार किया जाता है और अध्यापन की तरह तत्काल उसी समय किया जाता हैं ।


• रचनात्मक मूल्यांकन को रूपात्मक आकलन भी कहा जाता है। "प्रयोग करना" आकलन का एक विशिष्ट संकेतक माना जाता है। हस्तपरक गतिविधि प्रयोग संकेतक का आकलन करने का सर्वाधिक उपयुक्त तरीका माना जाता है।


प्राथमिक स्तर पर पर्यावरण अध्ययन में रचनात्मक आकलन में शिक्षार्थियों को ग्रेडिंग और रैंकिंग को शामिल नहीं किया जाता है।


2. संकलनात्मक/योगात्मक मूल्यांकन


इस प्रकार का मूल्यांकन प्रायः सत्र के अन्त में किया जाता है। शिक्षक द्वारा पढ़ाने के बाद ये देखना कि बच्चों ने ज्ञान को किस सीमा तक ग्रहण किया है।


किसी पाठ को पढ़ाने के बाद जब शिक्षक बच्चों से अध्याय से सम्बन्धित प्रश्न करता है तो वह मूल्यांकन योगात्मक मूल्यांकन कहलाता है।


3. निदानात्मक मूल्यांकन


जो बच्चे असफल हो रहे होते हैं, उन बच्चों की असफलता का कारण ढूँढना निदानात्मक मूल्यांकन कहलाता है।


सूक्ष्म शिक्षण


शिक्षक व्यवहार में सुधार के लिए अपनाई जाने वाली प्रविधियों में से सूक्ष्म शिक्षण भी है। यह एक प्रशिक्षण प्रणाली है जिसका प्रयोग अध्यापकों को कक्षा अध्यापन प्रक्रियाओं की शिक्षा देने हेतु किया जाता है । सूक्ष्म शिक्षण (Micro Teaching) वास्तविक शिक्षण है, परन्तु इस प्रणाली में साधारण कक्षा अध्यापन की जटिलताओं को कम कर दिया जाता है तथा एक समय में किसी भी एक विशेष कार्य एवं कौशल के प्रशिक्षण पर ही जोर दिया जाता है। इसमें प्रतिपुष्टि द्वारा अभ्यास को नियन्त्रित किया जा सकता है।


डी. एलन की परिभाषा के अनुसार, “सूक्ष्म शिक्षण समस्त शिक्षण को लघु क्रियाओं में बाँटना है।"


सूक्ष्म शिक्षण चक्र को निम्नलिखित चित्र की सहायता से समझा जा सकता 

सूक्ष्म शिक्षण के सिद्धान्त


यह वास्तविक अध्यापन है।


इसमें एक समय में एक ही कौशल के प्रशिक्षण पर बल दिया जाता है। • अभ्यास की प्रक्रिया पर नियन्त्रण रखा जा सकता है।


पृष्ठपोषण के प्रभाव की परिधि विकसित होती है।


शिक्षण कौशल


• सूक्ष्म शिक्षण का प्रयोग शिक्षण कौशलों के (Teaching Skills) विकास के लिए किया जाता है।


शिक्षण कौशलों से तात्पर्य उन शिक्षक व्यवहार स्वरूपों से होता है. जो


छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के लिए प्रभावशाली होते हैं।


• एन.एल. गेज ने शिक्षण कौशल को इस तरह परिभाषित किया है, "शिक्षण कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जिसे अध्यापक अपनी कक्षा-शिक्षण में प्रयोग करता है एवं जो शिक्षण-क्रम की उन क्रियाओं से सम्बन्धित होता है, जिन्हें शिक्षक अपनी कक्षा अन्तःक्रिया में लगातार उपयोग करता है।"


अध्यापक अपने शिक्षण में अनेक प्रकार के कौशलों का उपयोग करता है। इनमें से कुछ प्रमुख कौशल निम्न प्रकार हैं।


उद्दीपन


विन्यास प्रेरणा


समीपता


मौन एवं अशाब्दिक अन्तःप्रक्रिया


पुनर्बलन खोजपूर्ण प्रश्न


प्रश्न पूछना


विकेन्द्री प्रश्न


छात्र व्यवहार का ज्ञान


दृष्टान्त देना


व्याख्यान


उच्चस्तरीय प्रश्न करना


नियोजित पुनरावृत्ति एवं सम्प्रेषण


शिक्षण सहायक सामग्री


अध्यापन-अधिगम की प्रक्रिया को सरल, प्रभावकारी एवं रुचिकर बनाने वाले उपकरणों को शिक्षण सहायक सामग्री कहा जाता है। इन्द्रियों के प्रयोग के आधार पर शिक्षण सहायक सामग्री (Teaching Aids) को मोटे तौर पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है 1. श्रव्य सामग्री 2. दृश्य सामग्री एवं 3. दृश्य-श्रव्य सामग्री । 

 1. दृश्य सहायक सामग्री


दृश्य सहायक सामग्री (Visual Aids) का तात्पर्य उन साधनों से है जिनमें केवल देखने वाली इन्द्रियों (आँखों) का प्रयोग होता है। इसके अन्तर्गत पुस्तक, चित्र, मानचित्र, ग्राफ, चार्ट, पोस्टर, श्यामपट्ट, बुलेटिन बोर्ड, संग्रहालय, स्लाइड इत्यादि आते हैं।

2.श्रव्य सहायक सामग्री


श्रव्य सामग्री (Audio Aids) से तात्पर्य उन साधनों से है, जिनमें केवल श्रव्य इन्द्रियों (कानों) द्वारा प्रयोग किया जा सकता है। श्रव्य सामग्री के अन्तर्गत रेडियो, टेलीफोन, ग्रामोफोन, टेलीकॉन्फ्रेंसिंग, टेप रिकॉर्डर इत्यादि आते हैं। 

3.दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री

दृश्य-श्रव्य सामग्री (Audio Visual Aids) का तात्पर्य शिक्षण के उन साधनों से है जिनके प्रयोग से बालकों की देखने और सुनने वाली ज्ञानेन्द्रियाँ सक्रिय हो जाती हैं और वे पाठ के सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा कठिन से कठिन भावों को -- - सरलतापूर्वक समझ जाते हैं। दृश्य-श्रव्य सामग्री का अर्थ उन समस्त सामग्री से है जो कक्षा में अथवा अन्य शिक्षण परिस्थितियों में लिखित अथवा बोली हुई पाठ्य सामग्री को समझाने में सहायता देती है। इसके अन्तर्गत सिनेमा, वृत्तचित्र, दूरदर्शन, नाटक इत्यादि आते हैं।  

                 अभ्यास प्रश्न                    

1. निम्न में से कौन-से कथन सत्य नहीं है ?

(a) शिक्षक जन्मजात होते हैं
(b) शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जा सकता है
(c) शिक्षण एक कला है
(d) उपरोक्त सभी


2. शिक्षा परम धन है क्योंकि

(a) इसे कोई छीन नहीं सकता
(b) इसे जितना बाँटा जाए यह उतना ही बढ़ता है
(c) इसे कोई चुरा नहीं सकता
(d) उपरोक्त सभी 


3. 'शिक्षा' को परिभाषित किया जाता है

(a) अनुभवों के द्वारा होने वाली ज्ञान-बुद्धि के रूप में(

b) पुस्तकों से ज्ञान प्राप्ति के रूप में

(c) विद्यालयी शिक्षा के पर्यायवाची शब्द के रूप में

(d) 'जीवन की तैयारी' के रूप में


4. शिक्षण के लिए ज्ञान, प्रशिक्षण, अनुभव तथा अनुसन्धान के अलावा और किस बात की आवश्यकता पड़ती है?

(a) सकारात्मक अभिक्षमता की

(b) अभिरुचि की

(c) 'a' और 'b' दोनों की

(d) उपरोक्त में से कोई नहीं 

Part 1 the end 

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